Success Story: 10 वर्कर्स के साथ शुरू की चीनी मिट्टी के बर्तन की कम्पनी, इस शक्स ने बनाई अब 450 करोड़ की कम्पनी

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Success Story: 10 वर्कर्स के साथ शुरू की चीनी मिट्टी के बर्तन की कम्पनी, इस शक्स ने बनाई अब 450 करोड़ की कम्पनी

चीनी मिट्‌टी के बर्तन अब तक मैंने अपने घर में, बाजार में, होटल और रेस्टोरेंट में देखे थे। आज पहली बार चीनी मिट्‌टी बनाने वाली कंपनी ‘क्ले क्राफ्ट’ की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में दाखिल हो रहा हूं। यहां चीनी मिट्‌टी के 12 हजार से ज्यादा प्रोडक्ट बनते हैं।

चीनी मिट्‌टी के बर्तन अब तक मैंने अपने घर में, बाजार में, होटल और रेस्टोरेंट में देखे थे। आज पहली बार चीनी मिट्‌टी बनाने वाली कंपनी ‘क्ले क्राफ्ट’ की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में दाखिल हो रहा हूं। यहां चीनी मिट्‌टी के 12 हजार से ज्यादा प्रोडक्ट बनते हैं।


Success Story:  चीनी मिट्‌टी के बर्तन अब तक मैंने अपने घर में, बाजार में, होटल और रेस्टोरेंट में देखे थे। आज पहली बार चीनी मिट्‌टी बनाने वाली कंपनी ‘क्ले क्राफ्ट’ की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में दाखिल हो रहा हूं। यहां चीनी मिट्‌टी के 12 हजार से ज्यादा प्रोडक्ट बनते हैं।

कंपनी के फाउंडर राजेश अग्रवाल ने आज से 40 साल पहले इस बिजनेस की शुरुआत की थी। आज ये इनका फैमिली बिजनेस बन चुका है। जब मैं ‘क्ले क्राफ्ट’ के ऑफिस पहुंचा था तब राजेश दूसरी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट में विजिट पर गए हुए थे।

 दीपक एक प्लेट दिखाते हुए कहते हैं, ‘कभी 10-12 तरह के चीनी मिट्टी के ऐसे ही छोटे-मोटे बर्तन बनाने से इस कंपनी की शुरुआत हुई थी।

आज देखिए कि हम 10 हजार से ज्यादा प्रोडक्ट बना रहे हैं। एक दिन में ये नहीं हुआ है। इसके पीछे लंबी कहानी है।’

दीपक कंपनी की शुरुआत को लेकर बताते हैं, ‘70 के दशक की बात है। दादा LIC (लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया) के एजेंट थे। अब उस समय न तो लोग उतना एजुकेटेड थे और न पॉलिसी को लेकर इतनी समझ थी।

दादा दिनभर गांव-गांव, शहर-शहर घूम-घूमकर LIC की पॉलिसी बेचा करते थे। अब आप समझ सकते हैं कि किस तरह की दिक्कतें उन्हें आती रही होंगी। हमारी बहुत बड़ी फैमिली है। उस वक्त एक घर में 30 से ज्यादा लोग रहते थे।

ऐसे में परिवार को पालने, पढ़ाई-लिखाई का संघर्ष चलता रहा। इन सारी चुनौतियों के बाद भी दादा को पढ़ाई की अहमियत पता थी। पापा ने जब ग्रेजुएशन कम्प्लीट किया, तो दादा ने उन्हें भी LIC जॉइन करने के लिए कहा, लेकिन पापा अपना कुछ बिजनेस करना चाहते थे।

अब मारवाड़ी फैमिली, कम से कम एक दुकान तो होनी ही चाहिए। दादा ने एक छोटी सी ट्रेडिंग की दुकान खोलकर पापा को दे दी।’

वे बताते हैं, ‘1978 में मैंने अपने भाई पद्म अग्रवाल के साथ मिलकर इस कंपनी की शुरुआत की थी। दरअसल, उस वक्त ट्रेडिंग इंडिया में धीरे-धीरे बढ़ रहा था।

बड़े पैमाने पर प्रोडक्ट्स इंपोर्ट करना मुश्किल था। 1990 के बाद जब लिबरलाइजेशन का दौर शुरू हुआ, तब जाकर बिजनेस के लिहाज से थोड़ी सहूलियत हुई। उस वक्त लोगों की उतनी जरूरतें नहीं थीं, लेकिन जैसे-जैसे हमारे रहन-सहन का कल्चर बदलता गया, नए-नए प्रोडक्ट की मार्केट में डिमांड आने लगी।

दिक्कत यह थी कि जो चीनी मिट्टी के बर्तन तुर्की जैसे देशों में आज उपलब्ध हैं, इंडिया में वो 5 साल, 10 साल के बाद आ रहे हैं। इंडियन कस्टमर को भी उस तरह के प्रोडक्ट चाहिए थे। इस वजह से हमने चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने की मैन्युफैक्चरिंग यूनिट लगाई।’

आपके पापा या भाई की कोई तस्वीर? राजेश हंसते हुए कहते हैं, 'उस वक्त कहां फोटो का जमाना था। लोग अपना गुजारा कर लें, यही बड़ी बात।'

राजेश अग्रवाल कुछ प्रोडक्ट की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, 'महज ढाई हजार रुपए हमने इन्वेस्ट किया था। अब पापा LIC के एजेंट थे, तो उतनी आमद नहीं थी। शुरुआत में हम सब्जी, फ्रूट्स, सिरेमिक टेबलवेयर प्रोडक्ट्स… इन सारी चीजों की ट्रेडिंग करते थे, फिर डिमांड के मुताबिक सिरेमिक टेबलवेयर यानी चीनी मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू कर दिया।

दरअसल, जयपुर हैंडीक्राफ्ट का हब माना जाता है। उस वक्त ये इंडस्ट्री इंडिया में ग्रो कर रही थी। राजस्थान में सफेद मिट्टी यानी केओलिन की खान है। 10 कारीगरों के साथ हमने चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने की शुरुआत की थी। जहां हम बैठे हुए हैं, शुरुआत यहीं से हुई थी।’

दीपक कहते हैं, ‘जब ट्रेडिंग का कारोबार शुरू हुआ था, तो हमारे देशभर में क्लाइंट्स बन गए थे। पहले से मार्केट में कनेक्शन था, लेकिन जब हमने प्रोडक्ट बनाना शुरू किया, तो आज की तरह डिजिटल दौर नहीं था।

पापा-चाचा ट्रेन से सफर करके साथ में वजनदार चीनी मिट्टी के बर्तन का बंडल लेकर शहर-शहर जाते थे। दूरी इतनी कि एक-दो दिनों में वो वापस भी नहीं आ पाते थे। रात में क्लाइंट के यहां ही रुकना पड़ता था। अभी की तरह होटल... ये सब का दौर तो था नहीं। इन परेशानियों के साथ प्रोडक्ट बिकता था। हालांकि मैं इसे परेशानी नहीं चुनौती मानता हूं। इसे पार करके ही हम यहां तक पहुंचे हैं।

साल 2000 के बाद की बात है। इस बिजनेस में नई जेनरेशन की एंट्री हुई। मेरे बड़े भाई विकास अग्रवाल ने सिरेमिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, तब नए-नए प्रोडक्ट हमने खुद बनाना शुरू कर दिया। 2011 में मैंने MBA करने के बाद इस कंपनी को जॉइन किया था।’

दीपक कहते हैं, ‘यहां 3 शिफ्ट में काम होता है। जिस कंपनी की शुरुआत 10 वर्कर से हुई थी, आज 1500 से ज्यादा लोगों की टीम काम कर रही है। कंपनी का सालाना टर्नओवर 450 करोड़ से अधिक का पहुंच चुका है। लोगों के लिए ये महज एक मिट्टी होगी, लेकिन हमारे लिए तो सोना है…।’

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